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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2679
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

व्याख्या भाग

प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (चन्दबरदायी)

(1)

तिहि तप आषेटक भमई थिर न रहइ चहुवान
वर प्रधान जुग्गिनी पुरह धर रष्यई परवान

शब्दार्थ - आषेटक = आखेट, भमई = भ्रमित, थिर = स्थिर, जुग्गिनी = जोगिनीपुर (दिल्ली)।

सन्दर्भ - प्रस्तुत दोहा चंदरवरदाई रचित पृथ्वीराज रासो के तृतीय समय 'कैमास वध' से उद्धृत है।

प्रसंग - प्रस्तुत दोहे में अपने अपमान से व्यधित पृथ्वीराज के अस्थिर चित्त का परिचय प्राप्त होता है।

व्याख्या - उस विरह व अपमान से आहत व उद्विग्न पृथ्वीराज का शिकार करते हुए इधर-उधर फिर रहे थे। उनका मन राजधानी योगिनीपुर (दिल्ली) में नहीं लग रहा था। (संयोगिता का वरण करना उनके लिए प्रतिष्ठा का विषय बन चुका था।) योगिनीपुर में धरा की रक्षा उनका श्रेष्ठ प्रधान (अमात्य) कयमास प्रमाण रूप से कर रहा था। (अर्थात् चित्त की अस्थिरता के कारण पृथ्वीराज का मन राज-काज में नहीं लग रहा था अतः वह राज का भार कैमास को सौंपकर आखेट हेतु यत्र-तत्र भ्रमण में रत रहने लगा।

विशेष-
(1) शब्दों में अपभ्रंश की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। यथा - भमई - भ्रमण, परवान - प्रमाण, आदि।
(2) पृथ्वी की विकल मानसिक स्थिति का परिचय प्राप्त होता है।

 

(2)

राज का प्रतिमा स चीन धर्मा रामा रमे का मतीन्।
नित्तीरे कर काम वॉम वसना संगेन सेज्या गतिः।
अंधारेन जलेन छिन्न क्षितवा तरानि धरा रत।
सा मंत्री कयमास काम अंधा देवी विचित्रा गति।

शब्दार्थ - प्रतिमा = प्रतिनिधि, चीन = लघु, मतीन = बुद्धि, नित्तीरे = बिना तीर के, सा= वह, विचित्रा = विचित्र, दैवी =  दैव / भाग्य।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग - कयमास के करनाटी के प्रति आसक्त होकर निम्नकोटि के चरित्र का परिचय देते हुए काम - क्रीड़ा के चरित्र का परिचय देते हुए काम क्रीड़ा में प्रवृत्त होने का वर्णन प्रस्तुत हुआ है।

व्याख्या - जो राजा की प्रतिमा (प्रतिनिधि) था, वह लघु धर्मा (धर्म से विरत्) हो गया। अर्थात् जो उसका कर्त्तव्य का चरित्रवान कर्मनिष्ठ बने रहने का वह उससे नीचे गिर गया। उसकी मति तीरों से रहित निहथ्थे कामदेव के प्रभाव उनकी वामा अर्थात् कामदेव की पत्नी वामा (कामिनी) में रमण करने लगी। कामदेव के वशीभूत हो वह उस स्त्री के साथ शैय्यागत हुआ। अंधेरे में बरसने वाले जल से धरती परिपूरित हो गई तथा तारागण भी वर्षा में छिप गए थे, उस काल में कामान्ध होकर कयमास स्त्री विशेष (करनाटी) के प्रति झुक गया। दैव की भी यह विचित्र गति है। (कैमास जो कि राजा का प्रतिनिधि है वह किस प्रकार एक स्त्री के आकर्षण में बँधकर पथभ्रष्ट हो गया यह दैव (भाग्य की अनोखी गति है।)

 

(3)

करनाटी दासी सुबन रजनी अथ्यि अवास।
काम मुच्छ कयमास तनु छिट्टि विलग्गी तास॥

शब्दार्थ - अथ्थिक = आवास, प्रच्छ = मूर्च्छ, दिट्टि = दृष्टि, सुबन = सुवर्णा (सुरूप), रजनी = रात्रि।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत छन्द में कयमास व करनाटी दासी के मध्य उत्पन्न हुए प्रणय भाव का अंकन प्रस्तुत हुआ है।

व्याख्या - करनाट प्रदेश की एक सुन्दर सुरूप दासी थी जो रात्रि में (राजकीय) आस्थान (आवास) में उपस्थित थी। काम से प्रभावित कयमास की दृष्टि उस दासी की ओर लग गई और काम मूर्च्छित कैमास उस दासी पर आसक्त हो गया। (अर्थात् कामभावना से पीड़ित कयमास उस दासी के साथ प्रणय कामना करने लगा।

 

(4)

चलउ मुहिलि कयमास स्यणि नदी जाम इक्कत।
तं बोलय सधि साधि पट्ट रंगिनीअ निधि संकित।
दीपक जरइ संकरि भमिअ रत्तिअ पति अंतह।
अति स रोस भरि भूज लिहि दीप दासी करि कंतह।
पल्लाणि अस्य तंबिन परीय अवधि दीइअ दुहु परिय कहं।
पल गयण प्रयज कनि संचरीय नयन सयन प्रयिराज जहं॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

शब्दार्थ - रयणि = रजनी, नट्ठ = नष्ट, संकुरि= संकुचित।

प्रसंग - प्रस्तुत छन्द में किसी दासी द्वारा कयमास व करनाटी की प्रणयक्रीड़ा की सूचना पटरानी तक पहुँचाए जाने की घटना का उल्लेख है।

व्याख्या - एक प्रहर रात्रि के नष्ट (व्यतीत) होने पर कयमास उस महल की ओर चला जहाँ करनाटी दासी स्थित थीं। तब एक सखी ने सशंकित होकर निधि के विषय में पटरानी (परमारी रानी) के सम्मुख साक्ष्य के साथ यह बात कही कि जब महल में दीपक संकुचित हो रहा था ऐसे में वह कयमास काम से अन्धा होकर करनाटी दासी के अन्तःपुर में फिर रहा है। (यह कार्य कयमास के धर्म व नीति विरुद्ध है) यह सुनते ही परमारी रानी रोष से भर गई और कुपित होकर उसने एक भुज पत्र लिख दासी के हाथों पृथ्वीराज को दिया। तत्क्षण अश्व पलान कस कर दो ही घड़ियों की अवधि में (पृथ्वीराज को लाने हेतु) चल दी। गजों से प्रकीर्ण उस वन में मात्र नेत्रों के संचालन द्वारा संचरण करते हुए उस वन में जा पहुँची जहाँ पृथ्वीराज थे।

विशेष-
रानी इच्छिनी परमार पृथ्वी तक यह संदेश पहुँचाने हेतु व्यग्र थीं कि जिस कैमास पर वह इतना बृहद उत्तरदायित्व सौंप कर गए हैं वह लघु धर्मा हो गया है।

 

(5)

भूभ्रत सचित सुनिद्दा संग सा रयणि जग्गइ अविधा।
दीपकु जरई सुमुद्धा नूपर सद्दानि भानि अच्छानि ॥

शब्दार्थ - भूभ्रम = राजा पृथ्वीराज, निदा = निद्रा, सद्दानि = शब्द।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत छन्द में पटरानी की विशेष दासी के पृथ्वीराज के सम्मुख जाने का प्रसंग वर्णित हुआ है।

व्याख्या - भूभ्रर्त (भूमि का भरण करने वाले भूपति) सुचित्त होकर निद्रा मग्न थे और (उनके) साथ वह रजनी (रात्रि) अवैध रूप से जाग रही थी। दीपक जल रहा था (उसी समय उस मुग्धा (दासी) ने नूपुर के मधुर शब्दों से उस स्थान की तंद्रा (निष्तब्धता) भंग हो गई और उसने प्रहरी के माध्यम से अपने आगमन की सूचना राजा तक पहुँचा दी। 

विशेष -
(1) रात्रि के अवैध रूप से जागने द्वारा कवि ने कुछ अनिर्दिष्ट होने का संकेत देने का प्रयास किया है।
(2) गाथा छन्द का प्रयोग है।

(6)

भूकंप जयचंद राय कटके शंकापि न ग्यायते।
सं साहिस्स सहाबसाहि सकलं इच्छामि युद्धाइने।
सिद्धं चालुक चाइ मंत्र गहने दूरे स विस्वासरे।
अग्यानं चहुआन जांन रहियं दैयोऽपि रक्षा करे॥

शब्दार्थ - कटक = कंटक, शंकापि = शंका भी, चालुक = चालुक्य, वंशी = भीमदेव, सकलं = सारे, दैवाअपि = दैव ही।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत छन्द में कयमास के धर्मच्चुत हो जाने तथा अपने कर्त्तव्य से विमुख होने पर काल की क्रूर गति का वर्णन किया।

व्याख्या - जयचंद राजा के अपमान के भूंकप के पश्चात् भी राजा निष्कंटक अर्थात् अशंक रहे। शहाबुद्दीन गौरी से भी अपनी इच्छा के अनुसार ही युद्ध किया है। चालुक्य वंशी भीम देव को भी जब उन्होंने बंदी बनाया था तब कैमास उनके साथ ही थे और विस्वासुर नामक स्थान पर ही यह घटना हुई थी। इस प्रकार चौहान के साथ रहकर भी अज्ञानी कयमास उन्हें पूर्णरूपेण जान नहीं पाया। (उनकी अनुपस्थिति में धर्म के प्रतिकूल कार्य किया) ऐसे अज्ञानी की अब विधाता ही रक्षा करें।

विशेष -
(1) पृथ्वीराज के प्रचंड क्रोध का अनुमान किया गया है।
(2) साटिका नामक छंद का प्रयोग हुआ है।

 

(7)

छत्तिय हत्थु धरंत नयन्ननु चाहियउ।
तब हि दासि करि हथ्थ सु बंचि सुनावियउ।
बानावरि दुह बाह रोस रिस दाहियउ।
मनहु नागपति पतिनि अप्प जगावियउ।

शब्दार्थ - सघन = सेना, संमानयऊ = सम्मानित, छत्तिय = छाती पर, ततच्छिन = तत्क्षण, इन्दु = इन्द्र (देवों के समान राजा)

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत छन्द में दासी द्वारा तत्काल सूचना प्राप्त होने के पश्चात् पृथ्वीराज चौहान की प्रतिक्रिया का वर्णन प्रस्तुत हुआ है।

व्याख्या - जगाने के लिए हाथ बढ़ाने हेतु उद्यत हुई तभी पृथ्वी की आँख खुल गई। हाथ बढ़ाकर के पत्र को दासी ने जैसे ही पृथ्वी को पढ़कर सुनाया उस पत्र को सुनते ही पृथ्वीराज की दोनों भुजाओं में बाणावलियाँ शोभित होने लगीं अर्थात् उनके क्रोध ने प्रचंड रूप धारण कर लिया। कैमास का वध करने के लिए उद्यत पृथ्वीराज रोष से भर उठे। दासी को पृथ्वीराज का रूप ऐसा प्रतीत हुआ मानों नाग की पत्नी ने स्वयं नागराज को जगा दिया हो। आशय यह है कि परमारी रानी के पत्र को सुनते ही पृथ्वी विषधर के समान क्रुद्ध होकर फूँकारने लगे। जो बात दासी द्वारा पृथ्वीराज को बताई गई वो वहाँ उपस्थिति सेना और साथ रहने वाले कर्मचारियों किसी को भी ज्ञात नहीं हो पाई। दासी को भी किसी के द्वारा नहीं देखा गया। पृथ्वीराज ने अपनी पटरानी और स्वयं के मध्य उस दासी को रखकर उसे सम्मानित किया। तात्पर्य यह है कि कयमास और करनाटी के प्रकरण को पृथ्वीराज, पटरानी तथा दासी इन तीनों के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं जानता था। उसने (पृथ्वीराज ने) इन्द्र, फणीन्द्र और नरेन्द्रों की गोष्ठियों को तत्काल भंग कर दिया। वह दासी तत्क्षण (दो घड़ियों में) महाराज को वहाँ (महल) ले आई।

विशेष -
(1) क्रुद्ध पृथ्वीराज के कोप का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है।
(2) कवि बार-बार घडी (दो घड़ी) का संकेत कर समय की तीव्रता के विषय में बताने का प्रयास कर रहे हैं। अर्थात् यह बताने की चेष्टा की है कि किस प्रकार एक ही रात्रि में समस्त घटनाक्रम घटित हो गया।
(3) उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, उल्लेख आदि अलंकारों का प्रयोग है।

 

(8)

नवति नखप्पल निसि गलित धनु घुम्मई बिहूँ पासि।
पानि न अंधि न संचरइ महुल कहल कयमास॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

शब्दार्थ -

प्रसंग - कयमास में करनाटी दासी के साथ महल में व्यतीत किए समय का वर्णन किया गया है।

व्याख्या - (कयमास के महल में आनंद के पश्चात्) नवतिनव निन्यानबे) पल निशा व्यतीत हो चुकी थी। अर्थात् आधी रात से अधिक बीत चुकी थी। पृथ्वीराज महल में प्रवेश करते ही प्रणयरत कयमास पर प्रहार हेतु धनुष चढ़ा लिया और कैमास को लक्ष्य करने लगे। अंधकार फैला हुआ था। कयमास करनाटी दासी के साथ केलि में रत था। अंधकार के कारण पृथ्वी के हाथ और आँखें नहीं संचरण कर पा रहे थे, उस समय कयमास केलि में डूबा था।

 

(9)

रतिपति मुच्छि आनुष्पित तन धनु डुल्लइ बिव काज।
तडित किएउ अंगुलि अधम सु भंरिंग बान पृथ्वीराज॥

शब्दार्थ - मूर्च्छित = मूर्क्षित, अलुच्चित = अलभ्य।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

व्याख्या - जिसके तन रति पति (काम) से मूर्छित थे, अतः उसकी काया कपायमान थे अतः पृथ्वी के लिए लक्ष्य अलभ्य हो रहा था। ऐसे दोनों के लिए (पृथ्वीराज का) धनुष डोल रहा था (वह बाण का संधान नहीं कर पा रहा था) तभी अंगुली के हिलने से पृथ्वी के धनुष से तीर छूट कर निकल गया। (अर्थात् उनका निशाना चूक गया।)

विशेष -
(1) दोहरा छन्द का प्रयोग किया गया है।
(2) पृथ्वीराज द्वारा आवेगों की प्रबलता के कारण निशाना छूटने का स्वाभाविक चित्र खींचा गया
(3) कामोद्वेग से मूर्च्छित कयमास का भी सहज स्वाभाविक वर्णन प्रस्तुत हुआ है।

 

(10)

भरिग बान चवुआन जानि दूर देव ताप भर।
पुड्डि दिठ रिसि डुलिग यूक्पि निक्करिंग एक सर।

शब्दार्थ - चुक्क = चुका हुआ, भ्रष्ट, पूठि = पृष्ठ, कब्ब = काव्य, नसित = नष्ट।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - पृथ्वीराज के प्रचंड क्रोध के उद्वेग का चित्रण प्रस्तुत हुआ है। व्याख्या - चहुआन का बाण भर (चढ़ गया। यह जानकर देव, नाग, नर आदि भय के कारण छिप गए। किन्तु क्रोध के कारण (पृथ्वीराज की) मुट्ठी और दृष्टि डोल गई जिसके कारण बाण चूक कर कयमास के पास से निकल गया। तदनन्तर परमारी रानी (पटरानी) ने उसे ललकार कर दो बाण और दिए तथा पीठ पर प्रेरित किया। (पीछे से उत्तेजित किया) बाणावली के तड़कते ही (दूसरे बाण का संधान करते ही) (कयमास का) आहत धड़ आकर धरती पर गिर गया। यह सम्पूर्ण काव्य सरस्वती ने विचार किया और तदनन्तर उसने इसे कवि चन्द से स्वप्न में आकर कहा। कयमास आकाश चुम्बी प्रसाद से इस प्रकार गिरा जैसे निशा (रात) में नक्षत्र (तारा) पति (चन्द्रमा) से विनष्ट होकर गिरा हो।

विशेष -
(1) पृथ्वीराज द्वारा कयमास पर निशाना लगाने तथा कयमास के गिरने का काव्यात्मक चित्र प्रस्तुत किया गया है।
(2) उदाहरण, उपमा, रूपक, अलंकारों का प्रयोग हुआ है।
(3) रौद्र रस की व्यंजना हुई है।
(4) कवित्त छन्द का प्रयोग हुआ है।

 

(11)

सुंदरिगहि सारंगो दुज्जन दमनोइ पिष्य साइक्क। (1)
कि कि बिलास गहियं कि कि दुष्पाय दुष्पाय॥ (2)

शब्दार्थ - सारंगों = सींगों का बना हुआ धनुष, दुजन = दुर्जन, दमनोई = दमन करने वाले।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत छन्द में पृथ्वीराज पटरानी को कयमास का वध करने वाले बाणों को दिखा रहे हैं। व्याख्या (पृथ्वीराज ने परमानी पटरानी से कहा) हे सुन्दरी ! तू इस धनुष को काम और कयमास का दमन (वध) करने वाले इन बाणों को देख। इस दुष्ट कयमास ने चरित्र को भ्रष्ट करके दुःख को प्राप्त किया। अर्थात् इसने क्या-क्या विलास किए किन्तु किन-किन दुखों के लिए? (अर्थात् इसने जो विलास एवं कुकृत्य किए उसके लिए इसे यह दुख प्राप्त होना ही था)।

 

(12)

पभि गडुउ नृप अर्ध निधि सम दासी सुरघा ति। (1)
देव धरह जल घन अनिल कहिग बंद कवि प्राति॥ (2)

शब्दार्थ धरह = धरा (पृथ्वी), प्राति = प्रातःकाल, गड्डइ = गड्ढ।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

व्याख्या - नृप (पृथ्वीराज) ने दासी के साथ उस सुरतलीन कयमास को अर्ध रात्रि के समय महल के अन्दर गड़वा दिया। देवताओं, धरा, जल, घन और वायु को भी चन्दबरदायी (कवि) ने ही प्रातः काल कहा।

विशेष -
(1) कवि अतिश्योक्तिपूर्वक कल्पना के माध्यम से इस गोपनीय तथ्य के रहस्योद्घाटन की कला का भी प्रदर्शन कर रहा है।
(2) कवि चन्दरबरदायी की सर्वज्ञता का भी प्रमाण मिलता है।
(3) दोहरा छन्द का प्रयोग है।

 

(13)

अप्पु राय बलि बनि गद्यु सुंदरि संउधि स दाय। (1)
सुपनंतरि कवि चंद सउं सरझइ बद्दि सु आद्य। (2)

शब्दार्थ - अप्पु = स्वयं, राय = राजा, दाय भेद = रहस्य।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

व्याख्या - स्वयं राजा (पृथ्वीराज) उस दाय (भेद) को सुन्दरि परमारी रानी को सौंपकर वन लौट गया। स्वप्न में कवि चन्द से आकर माँ सरस्वती ने संवाद किया और बोली।

 

(14)

सु जोतिष तप गति उपाय बिनु नहि देष्यउं सुनि अष्यि। (1)
तउ मानउं स्यामिनि सयल जठ सु होई परतष्यि। (2)

शब्दार्थ - परतारिय = प्रत्यक्ष, देष्यई = देखा है, सयल = सामने।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - माँ सरस्वती चन्दरबरदायी के स्वप्न में प्रत्यक्ष होकर सम्पूर्ण घटना वर्णित करती हैं। कवि चन्द व वाग्देवी के मध्य परस्पर संवाद प्रस्तुत हुआ है।

व्याख्या - (चन्द ने स्वप्न में सरस्वती से कहा) "ज्योतिष, तपोबल तथा उपाय के बिना मैंने कहा हुआ (सब कुछ) सुन कर भी प्रत्यक्ष (आँखों से) नहीं देखा। हे स्वामिनी! मैं यह सब मान सकता हूँ यदि आप (मेरे सम्मुख) प्रत्यक्ष हों।'

विशेष -
(1) चन्दरबरदायी प्रकारान्तर से माँ सरस्वती से साक्षात् दर्शन देने की प्रार्थना कर रहे हैं।
(2) कवि की वाक्कला अनुपम है।
(3) दोहरा छन्द का प्रयोग है।

 

(15)

वाहन हंस ------------ कवि धाई।
शब्दार्थ - अंस = कंधा, तिहि = उस, धाई = ध्यान किया।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - माँ सरस्वती के साकार रूप में चन्दरबरदायी के सम्मुख प्रस्तुत होने का वर्णन है।

व्याख्या - (सरस्वती) प्रत्यक्ष हुई और कवि चन्द के मन में आई। परिणामस्वरूप उक्तियों की उत्कंठस कवि के कण्ठ में समुहाने लगी। सरस्वती का वाहन सुखदायक हंस का कंधा था। तब उस (सरस्वती के) रूप का चन्द ने ध्यान दिया।

विशेष -
(1) माँ सरस्वती के चिन्तन के पश्चात् ही मन में कल्पना वाणी का साकार रूप धारण कर पाती है।
(2) कवि के मन में रूप का प्रत्यक्षीकरण होते ही कवि की वाणी उदार होकर उनका वर्णन करने लगती है।

 

(16)

मराल बाल आसनं। (1)
अलित्त छाया सासनं। (2)
सोहंति आसु तुंबरं। (3)
सुराग राज धुंमरं (4)
कयंद केस मुक्करे। (5)
उरग्ग बास विट्टरे (6)
कपोल रेख गातयो। (7)
उवंत इंदु प्रातयो। (8)
बभूव जूव षंचये। (9)
कलंक राह वंचये। (10)
श्रवन्न ताट पिष्षयो। (11)
अनंग रथ्थ चक्कयो। (12)
उछंमि वारि षंजयो। (13)
तिरंति रूव रंजयो। (14)
सबाल कीर सद्धयो। (15)

शब्दार्थ - मगल = हंस, अलित्त = भ्रमर, तुंबरे = तुंबा, धुमरं = धुआँ (स्वर रूपी) मुक्करे = मुक्त, इंदु = चन्द्रमा, अनंग = कामदेव, कीर = तोता, उरग = सर्प, वभूत = प्रभूत, सुहं = सुभ, अपूठ = अपुष्ट, अद्द = आर्द = कोमल।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - चन्दरबरदायी ने विविध उपादानों द्वारा माँ सरस्वती के रूप सौन्दर्य तथा उनकी महिमा का वर्णन प्रस्तुत किया है।

व्याख्या - बाल हंस जिनका (सरस्वती) आसन था। भ्रमर शासन (नियंत्रित होकर) पूर्वक छाए हुए थे। उनके हाथ में वीणा का तुंबा शोभायमान हो रहा था। जिससे निकलते हुए (श्रेष्ठ) रागों का (स्वर के समान) धूम्र शोभित हो रहा था। जिसके कालिन्दी (यमुना) के समान श्याम केश मुक्त थे। उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो उनकी देह परिमल की सुवास की लालसा में सर्प बैठे हों। उनके कपोलों की शोभा को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो इन्दु (चन्द्रमा) प्रातः काल उदित हो गया हो और राहू के कलंक से बचने के लिए अपने मृगरथ के जुए को बहुत खींच रहा हो। उनके कानों में ताटंक (कर्णाभूषण) सुशोभित हो रहे थे, जो ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों अनंग (कामदेव) के रथ के पहिए हों। माँ सरस्वती के नेत्र ऐसे थे जैसे दो छोटे वारि खंजन हों और रूप की रंजित जल राशि में तिर रहे हों। जिनकी नासिका ऐसी थी मानो सीधा (सरल स्वभाव का) कीर पक्षी (तोता) विराजमान है। जो लाल बिम्बाफल सदृश ओठों को ताक रहा है। जिनके दाँत ऐसे छोटे और दीप्त प्रतीत हो रहे थे मानों अनार का फल मध्य सेविर्दीर्ण (टूट) हो गया हो। जिनकी ग्रीवा (गरदन) में मुक्ताओं (मोतियों) की श्रेष्ठ माला सुशोभित हो रही थी। जो ऐसी प्रतीत हो रही की मानो सुमेरू पर्वत ने गंगा को प्राप्त कर लिया हो। जिनकी भुजाओं में होडर थे। जिनके अम्बर (वस्त्र / चीर) में रक्तिका (धुँधची) लगी हुई थीं। जिनके नख आर्द (कोमल) और रक्षित थे और स्वस्थ और स्वच्छ लक्षणों को धारण करते थे। कनक (स्वर्ण) का जुड़ाव मुक्त (विपाचित) शीशफूल अलंकृत हो रहा था। जिनकी विविक्त (पृवग्भूत, प्रकट) रोमावलि थी। जिन्हें देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों पिपीलिकाएँ रेंग रहीं हों। जो दामिनी की छवि का अपहरण करती हैं। उनकी कटि कामिनी की भाँति क्षीण थीं। जिन्हें देखकर देवता शुभता का संचय करते हैं। जिनकी जाँघे अपुष्ट कोमल कदली (केले की नाल के सदृश थीं। मानों वे अदेव (अनीश्वर विश्वासी) के स्थूल ब्रह्म हों। जिनकी पिंडलियाँ सुन्दर और श्रेष्ठ थीं। जिनकी अंगुलियाँ चम्पा की कलियों के समान थीं। चलने पर जिनके पैरों में सुशोभित नुपुर मधुर शब्द कर रहे थे मानों मराल शावक (बाल हंस) चल रहे हों, और जिनके पैर स्वाभाविक रीति से (नैसर्गिक प्राकृतिक रूप से) ऐसे रंजित थे मानों उनके नीचे रक्त कमल हों।

विशेष -
(1) माँ सरस्वती के ध्यान के पश्चात् कवि ने माँ के स्वरूप का स्थूल चित्र प्रस्तुत किया है।
(2) कवि उन्हें अनीश्वरवादियों (दुष्टों) का विनाश करने वाली तथा ब्रह्म के समान वर्णित किया है।
(3) उपमा, रूपक, तद्गुण, उल्लेख, अनुप्रास तथा अतिशयोक्ति अलंकारों का प्रयोग हुआ है।
(4) अर्ध नागषज नामक छन्द का प्रयोग हुआ है।

 

(17)

अंबुज .... .... नृप आयउ।

शब्दार्थ - अंबुज = कमलिनी, अलि = भ्रमर, वयन = वचन, नंषे = नद्दश् = फेंकना, सांमि = स्वामी।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रातः काल का वर्णन प्रस्तुत हुआ है।

व्याख्या - सवेरा होने पर कमलिनी विकसित होने लगीं और उसकी सुवास के लिए भ्रमर आ गया। स्वामी (भ्रमर) ने सुन्दरी (कमलिनी) को उत्तम वचनों द्वारा समझया। रात्रि में दो घड़ी तथा पाँच पल वे (पृथ्वीराज) दौड़े थे। तब वे आखेट को समाप्त कर आ गए।

विशेष -
(1) अडिल्ल छन्द का प्रयोग है।
(2) कमलिनी व भ्रमर के संवाद द्वारा पृथ्वीराज के पुनरागमन की सूचना प्राप्त होती है।

(18)

झ्झ पहुर पुच्छइ तिहि पंडिय। (1)
कहि कवि विजय साह जिह डंडिय॥ (2)
सकल सूर बोलिव सभ मंडिय॥ (3)
आसिष जाय (जाइ) दीध कबि पंडिय॥ (4)

शब्दार्थ - पहुर = प्रहर (समय), पंडिय = पंडित, जयानक विजय साह = विजय का काव्य (पृथ्वीराज विजय)

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत छन्द में पृथ्वीराज द्वारा कवि जयानक से अपने शौर्य का काव्य लिखे जाने के आदेश वाले प्रसंग का वर्णन है।

व्याख्या - प्रथम या मध्य प्रहर के मध्य पृथ्वीराज दिल्ली के दरबार में कवि जयानक से कहने लगे कि हे जयानक तुम मेरी विजय का काव्य (पृथ्वीराज विजय) लिखो कि किस प्रकार मैंने शाह शहाबुद्दीन गौरी को दण्डित किया है। तदनन्तर समस्त शूर-वीरों को एकत्रित करके एक सभा की, जिसमें जाकर कवि चंद ने उन्हें (पृथ्वीराज को) आशीर्वाद दिया। (क्योंकि चन्द जानते थे कि पृथ्वी द्वारा किए गए कृत्य के सामने आने पर उन्हें प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करना पड़ेगा।)

विशेष-

(1) जयानक नामक कश्मीरी कवि द्वारा 'पृथ्वीराज विजय' नामक ग्रन्थ की रचना का उल्लेख ऐतिहासिक साक्ष्यों द्वारा भी प्राप्त होता है।
(2) इसी ग्रन्थ के आधार पर रासों की ऐतिहासिकता को लेकर विवाद उठा था।
(3) चन्द पृथ्वी का शुभचिन्तक था, अतः अप्रत्यक्ष रूप से वह उसे आने वाले संकट की घड़ी में अविचल रहने हेतु आशीष दे रहा था।
(4) अडिल्ल नामक छन्द का प्रयोग हुआ है।

 

(19)

प्रथम सूर पुच्छइ चहु आनहुं। (1)
हइ कबमासु कहूं कोइ जानहुं। (2)
तरणि छिपंत संझि सिर नायउ॥ (3)
प्रात देव मुहुल न पायड़। (4)

शब्दार्थ - तरणि = सूर्य, छिपंत = छिपते ही, संसि = संध्या काल में, मुहुल = महल (राजप्रसाद।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - पृथ्वीराज द्वारा भरी सभा में कयमास के विषय में प्रश्न किए जाने के प्रसंग का वर्णन है। व्याख्या शूरों से भरी सभा में चहुआन (पृथ्वीराज) उनसे पूछने लगा, कयमास कहाँ है? कोई जानते हो? उन्होंने उत्तर दिया "सूर्य के छिपने के समय संध्याकाल में (हमने उसे सिर झुकाया था (प्रणाम किया था) किन्तु हे देव! प्रातःकाल हमने उन्हें महल में नहीं पाया।' (अर्थात् वे सभी कयमास के विषय में अनभिज्ञता प्रदर्शित कर देते हैं।)

 

(20)

उदय अगस्ति नयन दिठि उज्ज्वल जल ससि कास। (1)
मोहि चन्द हइ विजय मन कहहुं कहां कयमास॥ (2)

शब्दार्थ - अगस्ति = अगस्त्य (सूर्य), कास = काम, कहहुं = कहो, दीठि = दृष्टि में।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

व्याख्या - पृथ्वीराज ने कहा "अगस्त्य (सूर्य) के उदय होते ही मेरे नेत्रों की दृष्टि में जल, चन्द्रमा तथा काम उज्ज्वल दिखाई देने लगे हैं (जैसे ही सूर्योदय हो गया है मेरे नेत्रों को जल, चन्द्रमा तथा काम उज्ज्वल कर्म की भावना से प्रेरित कर रहे हैं) चन्द की ओर उन्मुख होते हुए वे कहते हैं कि हे चन्द। मेरे हृदय में (कन्नौज राज्य की) विजय की आस लगी हुई है। बताओ कयमास कहाँ है?

विशेष-
(1) कन्नौज के राजा जयचन्द ही पृथ्वी के मन की अस्थिरता के कारण है अतः वह कन्नौज पर अधिकार करने की इच्छा व्यक्त कर रहे हैं।
(2) कयमास उनका दीर, साहसी सामन्त था, उसके बिना वे युद्ध में प्रस्थान नहीं करते थे, अतः कन्नौज विजय के माध्यम से वे सामन्तों से कयमास के बारे में पता लगाने की चाल चल रहे हैं कि कहीं किसी को रात की घटना की जानकारी तो नहीं है।

 

(21)

नागपुर सुरपुर सयल कथित कहउं सब साज। (1)
दाहिम्मउ दुल्लह भयउ कहउ न जाइ प्रथीराज॥ (2)

शब्दार्थ - नागपुर = नागलोक, सुरपुर = देवलोक दाहिम्मह अभाग, भयउ = हो गया, इल्लह = दुर्लभ, सयल = सकल।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत छन्द में कविचन्द द्वारा पृथ्वीराज के सम्मुख कयमास के रहस्य से आवरण हटाने का प्रसंग वर्णित हैं।

व्याख्या - "नागपुर (नागलोक) आदि में सब के सब जगह यदि आप कहें तो मैं उसे ढूँढ़ लूँ पर वह अभागा कयमास (इन तीनों लोकों में) दुर्लभ हो गया है। (अतः) हे पृथ्वीराज वह कहाँ हैं मुझसे यह कहा नहीं जा रहा है। (अर्थात् मैं इस समय यह नहीं कह पा रहा हूँ कि वह कहाँ है (अर्थात् मृत है)

विशेष-
(1) तीन प्रकार के लोगों देवलोग, नागलोक, मृत्यलोक का वर्णन किया गया है।
(2) दोहरा छन्द का प्रयोग हुआ है।

 

(22)

कहा भुजंग कहा उदे सुर निकमु कब्बु कवि षंडि। (1)
कइ कयमास बताहि मो कइ हर सिद्धी बर छांडि॥ (2)

शब्दार्थ - भुजंग = नाग, सुर = देवता, निकमु = निष्कर्म / निरर्थक, उदे = = उदित हुआ है (जन्मा है). कई = या तो, छंडि = छोड़ दो।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - पृथ्वीराज द्वारा सब जानते हुए भी उग्र भाषा में चन्द को कयमास के विषय में बताने हेतु ललकारे जाने का प्रसंग वर्णित हुआ है।

व्याख्या - पृथ्वीराज अत्यन्त उग्रता के साथ चन्द से कहते हैं " (कयमास) क्या सर्प अथवा क्या देव (योनि) में उदय हुआ है, जन्मा है? (जो कोई उसके विषय में नहीं जान पा रहा है) हे कवि! चन्द या तो तू अपने इस व्यर्थ काव्य को नष्ट कर दें। या तो तू मुझे कयमास को बता या तो हर सिद्धि (सरस्वती के वरदान की बात कहना) का वर छोड़ दे। (अर्थात् अपने को वरदायी कहलाने का अभिमान त्याग दे।

विशेष -
(1) चन्द को हर सिद्धि का वर प्राप्त था (अर्थात् वे त्रिकाल दर्शी व सर्वज्ञाता थे)
(2) पृथ्वीराज द्वारा जानबूझकर चन्द को सत्य उद्घाटित कर देने हेतु प्रेरित किया जा रहा था।
(3) दोहरा छन्द है।

 

(23)

जठ छंडइ सेसह धरिण हर छंडइ विथ कंद। (1)
रवि छंडइ तप ताप कर तउ वर छंडइ कबि बंद। (2)

शब्दार्थ - सेसह = शेषनाग, धरणि = धरती, छंडइ = छोड़ दे, हर = शिव, विष कंद = विष खाना, रवि = सूर्य, तउ = तो जई = यदि।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - कवि चन्द द्वारा पृथ्वीराज की हठ का तर्कपूर्ण उत्तर दिए जाने का प्रसंग है।

व्याख्या - चन्द ने हठी पृथ्वी को संबोधित करते हुए कहा कि यदि शेषनाग धरती को धारण करना छोड़ दें, शिव विष खाना त्याग दें, सूर्य अपनी गर्मी और तापपूर्ण किरणों को छोड़ दें तो कवि चन्द भी अपनी सिद्धि का वर छोड़ सकता है। (अर्थात् जिस प्रकार इनका त्याग किया जाना असंभव है। उसी प्रकार कवि चन्द द्वारा हर सिद्धि के वर का त्यागा जाना भी असंभव है।)

विशेष -
(1) पौराणिक आख्यानों तथा प्राकृतिक उपादानों का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कवि चन्द द्वारा सिद्धि न छोड़े जाने का समर्थन प्रस्तुत हुआ है।

 

(24)

हठि लग्गउ बहुआन निव्य अंगुलि मुषह फणिंद। (1)
तिहुपुरि तुअ मति संचर सु कहइ बयन कवि बंद॥ (2)

शब्दार्थ - हठि = जिद, मुषह = मुख, फठिंद = भयंकर सर्प, तिहुपुरि = तीनों लोकों, तुऊ =. तुम्हारी / तेरी, संचर = संचरण, मति = बुद्धि।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत छन्द में पृथ्वीराज द्वारा कवि चन्द के सम्मुख की गई हठ का वर्णन प्रस्तुत हुआ। पृथ्वी चन्द से हठपूर्वक कयमास का पता पूँछने लगता है।

व्याख्या - चहुआन राजा (पृथ्वीराज) चन्द के वचनों को सुनकर हठ में पड़ गया और उसका इस प्रकार हठ करना क्रुद्ध सर्प के मुख में उँगली देने के समान था। (उसने चन्द से कहा) "तेरी बुद्धि तीनों लोकों में संचरण करती है। (अर्थात् तुम्हारी बुद्धि में तीनों लोकों में होने वाली घटनाएँ समाहित हो जाती हैं) हे कवि चन्द ! यह वचन कह कि कयमास कहाँ हैं?"

 

(25)

 

 

खेस सिहप्परि सूर तर जइ पुच्छइ लिप एस। (1)
दोहुं कोरिन मंडन मरनु कहइ तउ कब्यु कहेस॥ (2)

शब्दार्थ - सिरुप्परि = सिर के ऊपर, सूर तर = सूर्य के नीचे, पुच्छइ = पूछता है, मंडन = मँढ़ना, वरण करना, कब्बु = काव्य।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत छन्द में चन्द द्वारा काव्य के माध्यम से कयमास का सत्य उद्घाटित करने का प्रसंग है।

व्याख्या - कवि चन्द पृथ्वी को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे राजा! शेषनाग के सिर पर (अर्थात् पृथ्वी) और सूर्य के नीचे (स्थित तीनों लोकों के विषय में यदि तू ऐसा पूछता है तो दोनों ही बातों में बताने पर भी और न बताए जाने पर भी मरण को मंडना (वरण करना) है। इसलिए यदि तू कहे तो काव्य में कहूँ।"

विशेष -
(1) कवि चन्द के अन्तर्द्वन्द्व का स्वाभाविक चित्रण हुआ है।
(2) अनुप्रास, उपमा अलंकार है।

 

(26)

एक बान पुहबी नरेस कयमासह मुक्कउ। (1)
उर उप्पर परहरउ वीर कष्यहतर बुक्कउ। (2)
बीउ बाम संधानि हनउ सोषेमुर नंदन। (3)
गाडउ करि निग्गहउ षनिद्य षोदउ संभरि धनि। (4)
धर छंडि न जाइ अभागरउ गारइ गहउ जु गुन परउ। (5)
इम जंपइ चंद बिरछिया सु कहा निमट्टिहि इह प्रलउ। (6)

शब्दार्थ - पुहवी नरेश = पृथ्वी नरेश, मुक्कऊ = छोड़ था, षरहरउ = खरभराता हुआ, चुक्कउ = चूक गया, हनउ = मार डाला, निमट्टिहि = निपंप्गा, षरउ = खरे।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - चन्द बरदाई कयमास वध का वृतांत पृथ्वी के सम्मुख प्रस्तुत किए जाने का वर्णन प्रस्तुत किया गया है।

व्याख्या - कवि चन्द कहते हैं हे पृथ्वी नरेश ! एक बाण तुमने कयमास पर छोड़ा। वह बाण उसके हृदय पर खरभराता हुआ उस वीर की आँख के नीचे से होकर चूक (निकल) गया। तुमने हे सोमेश्वर नन्दन। दूसरा बाण संधान करके कयमास को मार डाला और हे साँभरपति तुमने खन खोदकर गड्डा करके उसको उसमें जकड़ दिया। उस अभागे से अब वह स्थल छोड़ा नहीं जा रहा है अथवा वह अभागा स्थल छोड़ कर जा नहीं रहा है। क्योंकि पाषाण के द्वारा खरे गुणों वाला पकड़ा गया है। चन्द विरहिया इस प्रकार कहता (पूछता) है इस प्रलय (के समान भयानक कार्य) से क्या निपटेगा (बनेगा)?" (अर्थात् तुम्हारे द्वारा किए गए इस भयानक कृत्य के परिणाम को किस प्रकार भुगता जाएगा?)

विशेष -
(1) कवित्व छन्द का प्रयोग हुआ है।
(2) चन्द बरदाई द्वारा कवि धर्म का परिचय देते हुए पृथ्वी के सम्मुख कयमास के वध का निर्भयतापूर्वक वर्णन प्रस्तुत किया गया है।
(3) कयमास की मृत्यु का प्रत्यक्ष वर्णन कवि चन्द ने शब्दबद्ध किया है।

 

(27)

उग्गअं भान पायान पूरं। (1)
बजियं देव दरि संष तूरं॥ (2)
कलत कयमास चडि वरणसाला। (3)
देय बरदाइ वर मंगि बाला॥ (4)

शब्दार्थ - भान = सूर्य, पायान = किरणों से, बज्जियं = बजने लगे, संष = शंख, तूरं = तूर्य, कलत = कलह (स्त्री) वरणशाला = वर्णशाला, देव = महादेव, बरदाई= चन्द, वर= वरदान अर्थात् मृत पति का शव।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत छन्द में कयमास की पत्नी द्वारा चन्दबरदायी से अपने मृत पति के शव माँगने का वर्णन हुआ है।

व्याख्या - किरणों से पूर्ण भानु उदित हुआ। देव-द्वार पर शंख और तूर्य का स्वर मुखरित होने लगा। कयमास की स्त्री वर्णशाला पर चढ़ी और महादेव के बरदायी (कवि चन्द) से वर (मृत पति का शव) माँगने लगी। (अर्थात् वह पतिव्रता अपने पति के शव के साथ चिता पर चढ़कर सती होने की इच्छा से पति के शव को प्राप्त करने हेतु कवि चन्द से विनती करने लगी)।

विशेष
(1) आर्या छन्द का प्रयोग है।
(2) अनुप्रास, रूपक आदि अलंकारों का प्रयोग है।

 

(28)

जा जीवन कारणइ धर्म पात्रहि मृत जालहि। (1)
जा जीवन कारणइ अथ्य सं चित्त उबारहि। (2)
जा जीवन कारणइ दुरग रष्यहि सथ अप्पाहि। (3)
जा जीवन कारणइ भूम नव ग्रह करि कप्पाहि। (4)
जउ जीवन साई अप्नउ नृपति बहुत वच्चनह भउ। (5)
सुक्कि सरोवर हंस गउ सुकिलि उडउ अंधार भउ॥ (6)

शब्दार्थ - कारणई = कारण, सुकिलि= संकल्प, अथ्थ = अर्थ, सुक्कि = सूख गया, अंधार = अंधकार, साई = मूल्यवान पदार्थ।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत कवित्त में कवि चन्द जीवन के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण व गंभीर भावों की व्यंजना कर रहे हैं। कवि कयमास की स्त्री के माध्यम से जीवन की सार्थकता पर विचार कर रहे हैं।

व्याख्या - उसने (कयमास की स्त्री ने कहा जिस जीवन के कारण ही मनुष्य धर्म का पालन करता और (उसके द्वारा) मृत्यु को जलाता है। अर्थात् धर्म के अर्जन द्वारा वह मृत्यु व पापों की पीड़ा को जलाता (शान्त) करता है। जिस जीवन के कारण ही (मनुष्य) अर्थ धनोपार्जन के साधनादि के द्वारा अपने चित्त को उबारता है। जिस जीवन के कारण ही मनुष्य सर्वस्व (शत्रु को) अर्पित करके भी अपने दुर्ग की रक्षा करता है। जिस जीवन के कारण ही वह भूमि नवग्रह (की शांति) हेतु संकल्प करता है। (अर्थात् जीवन में भाँति-भाँति के यत्नों द्वारा शांति और सुख प्राप्त करने का विधान करता है) यदि अपना मूल्यवान जीवन प्रतीत होता है तो उसके कारण राजा के भी बहुत से वचनों का मान होता है (अर्थात् जीवन बनाए रखने व चलायमान रखने हेतु राजा के निर्देशों का भी समुचित पालन करते रहना पड़ता है) किन्तु अब मेरा जीवन रूपी सरोवर सूख गया है। तो हंस (प्राण प्रिय पति रूपी सूर्य) भी चला गया और हंस (प्राण रूपी सूर्य) के सिमटकर (पंख बटोर कर) उड़ जाने पर सर्वस्व अंधकार छा जाता है। (अर्थात् उसका जीवन निरर्थक हो चुका है)

विशेष -
(1) कयमास की स्त्री जीवन में धर्म के महत्व का प्रतिपादन कर रही है।
(2) सांगरूपक, उल्लेख, अनुप्रास, रूपक आदि अलंकार हैं।
(3) पति की मृत्यु के पश्चात् उसके जीवन रूपी सरोवर के सूखने से आशय उसके जीवन के अवलम्ब रहित होने का संकेत देता है।
(4) कयमास की पत्नी भारतीय नारी के पतिपरायण रूप की निदर्शना कराती है।
(5) कवित्त छन्द तथा शान्त रस की व्यंजना है।

 

(29)

मातु गम्भ वास करिबि जंम बासर बसि लहगउ। (1)
पिन लग्ग पिन रुदइ मुदइ पिन हसइ अभग्गउ। (2)
बपु बिसेस बढिअउ अंत डढ्ढइ डर डरयउ। (3)
कब तुचा दंत ज रारि धीर किम किम उब्बरयउ। (4)
मान भंगु मुक्कइ सबल लपित निमिष्य नि मिट्टहि। (5)
पर काज आज मंगउ नृपति कहु त प्राण पमुक्कहि। (6)

शब्दार्थ - गम्भ = गर्भ, रुदई = रुदन / रोना, कच = केश, तुचा = त्वचा, पर काज = दूसरों के निमित्त।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

व्याख्या - मनुष्य माता के गर्भ में वास करने के अनन्तर दिन के वश (समय पूरा होने पर) जन्म लाभ करता है। एक क्षण वह (संसार में) संपन्न होता है दूसरे ही क्षण इससे खिन्न होकर रोता है। एक क्षण में वह मुँद (मौन) जाता है तो दूसरे ही क्षण अभागा हँसने लगता है। (उसका) वपु (शरीर) विशेष रूप से संवर्धित होता है किन्तु अन्त में जलाए जाने से वह डरता है। कच, त्वचा, दाँत आदि को ढालकर किसी न किसी तरह कष्ट से उबरता है। इस कारण यह सोचकर कि पृथ्वीराज से शव हेतु याचना करने पर तेरी मान हानि होगी यह सोच छोड़ दें। इस समस्त मान-भंग (की भावना) को छोड़ क्योंकि जो लक्षित (निर्धारित) है वह एक क्षण के लिए भी नहीं मिटेगा। दूसरे के हित (परकाज) के लिए तूं आज नृपति से याचना कर यदि तू उससे कहे (शव देने हेतु) तो (कयमास का शव लेकर) मेरा प्राण निकलेगा अर्थात् सती होकर मैं मुक्त हो पाऊँगी।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- विद्यापति का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- गीतिकाव्य के प्रमुख तत्वों के आधार पर विद्यापति के गीतों का मूल्यांकन कीजिए।
  3. प्रश्न- "विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी" इस सम्बन्ध में प्रस्तुत विविध विचारों का परीक्षण करते हुए अपने पक्ष में मत प्रस्तुत कीजिए।
  4. प्रश्न- विद्यापति भक्त थे या शृंगारिक कवि थे?
  5. प्रश्न- विद्यापति को कवि के रूप में कौन-कौन सी उपाधि प्राप्त थी?
  6. प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि विद्यापति उच्चकोटि के भक्त कवि थे?
  7. प्रश्न- काव्य रूप की दृष्टि से विद्यापति की रचनाओं का मूल्यांकन कीजिए।
  8. प्रश्न- विद्यापति की काव्यभाषा का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (विद्यापति)
  10. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता एवं अनुप्रामाणिकता पर तर्कसंगत विचार प्रस्तुत कीजिए।
  11. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो' के काव्य सौन्दर्य का सोदाहरण परिचय दीजिए।
  12. प्रश्न- 'कयमास वध' नामक समय का परिचय एवं कथावस्तु स्पष्ट कीजिए।
  13. प्रश्न- कयमास वध का मुख्य प्रतिपाद्य क्या है? अथवा कयमास वध का उद्देश्य प्रस्तुत कीजिए।
  14. प्रश्न- चंदबरदायी का जीवन परिचय लिखिए।
  15. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो का 'समय' अथवा सर्ग अनुसार विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  16. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो की रस योजना का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- 'कयमास वध' के आधार पर पृथ्वीराज की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- 'कयमास वध' में किन वर्णनों के द्वारा कवि का दैव विश्वास प्रकट होता है?
  19. प्रश्न- कैमास करनाटी प्रसंग का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (चन्दबरदायी)
  21. प्रश्न- जीवन वृत्तान्त के सन्दर्भ में कबीर का व्यक्तित्व स्पष्ट कीजिए।
  22. प्रश्न- कबीर एक संघर्षशील कवि हैं। स्पष्ट कीजिए?
  23. प्रश्न- "समाज का पाखण्डपूर्ण रूढ़ियों का विरोध करते हुए कबीर के मीमांसा दर्शन के कर्मकाण्ड की प्रासंगिकता पर प्रहार किया है। इस कथन पर अपनी विवेचनापूर्ण विचार प्रस्तुत कीजिए।
  24. प्रश्न- कबीर एक विद्रोही कवि हैं, क्यों? स्पष्ट कीजिए।
  25. प्रश्न- कबीर की दार्शनिक विचारधारा पर एक तथ्यात्मक आलेख प्रस्तुत कीजिए।
  26. प्रश्न- कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं। इस कथन के आलोक में कबीर की काव्यभाषा का विवेचन कीजिए।
  27. प्रश्न- कबीर के काव्य में माया सम्बन्धी विचार का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  28. प्रश्न- "समाज की प्रत्येक बुराई का विरोध कबीर के काव्य में प्राप्त होता है।' विवेचना कीजिए।
  29. प्रश्न- "कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की भक्ति पर बल दिया था।' स्पष्ट कीजिए।
  30. प्रश्न- कबीर की उलटबासियों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  31. प्रश्न- कबीर के धार्मिक विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  32. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (कबीर)
  33. प्रश्न- हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य-परम्परा में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का स्थान निर्धारित कीजिए।
  34. प्रश्न- "वस्तु वर्णन की दृष्टि से मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत एक श्रेष्ठ काव्य है।' उक्त कथन का विवेचन कीजिए।
  35. प्रश्न- महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि 'पद्मावत' एक महाकाव्य है।
  36. प्रश्न- "नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।' इस कथन की तर्कसम्मत परीक्षा कीजिए।
  37. प्रश्न- 'पद्मावत' एक प्रबन्ध काव्य है।' सिद्ध कीजिए।
  38. प्रश्न- पद्मावत में वर्णित संयोग श्रृंगार का परिचय दीजिए।
  39. प्रश्न- "जायसी ने अपने काव्य में प्रेम और विरह का व्यापक रूप में आध्यात्मिक वर्णन किया है।' स्पष्ट कीजिए।
  40. प्रश्न- 'पद्मावत' में भारतीय और पारसीक प्रेम-पद्धतियों का सुन्दर समन्वय हुआ है।' टिप्पणी लिखिए।
  41. प्रश्न- पद्मावत की रचना का महत् उद्देश्य क्या है?
  42. प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद को समझाइए।
  43. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (जायसी)
  44. प्रश्न- 'सूरदास को शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है।" कथन का विश्लेषण कीजिए।
  45. प्रश्न- सूरदास जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए?
  46. प्रश्न- 'भ्रमरगीत' में ज्ञान और योग का खंडन और भक्ति मार्ग का मंडन किया गया है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
  47. प्रश्न- "श्रृंगार रस का ऐसा उपालभ्य काव्य दूसरा नहीं है।' इस कथन के परिप्रेक्ष्य में सूरदास के भ्रमरगीत का परीक्षण कीजिए।
  48. प्रश्न- "सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है।' भ्रमरगीत के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
  49. प्रश्न- सूर की मधुरा भक्ति पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  50. प्रश्न- सूर के संयोग वर्णन का मूल्यांकन कीजिए।
  51. प्रश्न- सूरदास ने अपने काव्य में गोपियों का विरह वर्णन किस प्रकार किया है?
  52. प्रश्न- सूरदास द्वारा प्रयुक्त भाषा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  53. प्रश्न- सूर की गोपियाँ श्रीकृष्ण को 'हारिल की लकड़ी' के समान क्यों बताती है?
  54. प्रश्न- गोपियों ने कृष्ण की तुलना बहेलिये से क्यों की है?
  55. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (सूरदास)
  56. प्रश्न- 'कविता कर के तुलसी ने लसे, कविता लसीपा तुलसी की कला। इस कथन को ध्यान में रखते हुए, तुलसीदास की काव्य कला का विवेचन कीजिए।
  57. प्रश्न- तुलसी के लोक नायकत्व पर प्रकाश डालिए।
  58. प्रश्न- मानस में तुलसी द्वारा चित्रित मानव मूल्यों का परीक्षण कीजिए।
  59. प्रश्न- अयोध्याकाण्ड' के आधार पर भरत के शील-सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
  60. प्रश्न- 'रामचरितमानस' एक धार्मिक ग्रन्थ है, क्यों? तर्क सम्मत उत्तर दीजिए।
  61. प्रश्न- रामचरितमानस इतना क्यों प्रसिद्ध है? कारणों सहित संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
  62. प्रश्न- मानस की चित्रकूट सभा को आध्यात्मिक घटना क्यों कहा गया है? समझाइए।
  63. प्रश्न- तुलसी ने रामायण का नाम 'रामचरितमानस' क्यों रखा?
  64. प्रश्न- 'तुलसी की भक्ति भावना में निर्गुण और सगुण का सामंजस्य निदर्शित हुआ है। इस उक्ति की समीक्षा कीजिए।
  65. प्रश्न- 'मंगल करनि कलिमल हरनि, तुलसी कथा रघुनाथ की' उक्ति को स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- तुलसी की लोकप्रियता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  67. प्रश्न- तुलसीदास के गीतिकाव्य की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
  68. प्रश्न- तुलसीदास की प्रमाणिक रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
  69. प्रश्न- तुलसी की काव्य भाषा पर संक्षेप में विचार व्यक्त कीजिए।
  70. प्रश्न- 'रामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड का महत्व स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- तुलसी की भक्ति का स्वरूप क्या था? अपना मत लिखिए।
  72. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (तुलसीदास)
  73. प्रश्न- बिहारी की भक्ति भावना की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- बिहारी के जीवन व साहित्य का परिचय दीजिए।
  75. प्रश्न- "बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है।' इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।
  76. प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर विचार कीजिए।
  77. प्रश्न- बिहारी बहुज्ञ थे। स्पष्ट कीजिए।
  78. प्रश्न- बिहारी के दोहों को नाविक का तीर कहा गया है, क्यों?
  79. प्रश्न- बिहारी के दोहों में मार्मिक प्रसंगों का चयन एवं दृश्यांकन की स्पष्टता स्पष्ट कीजिए।
  80. प्रश्न- बिहारी के विषय-वैविध्य को स्पष्ट कीजिए।
  81. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (बिहारी)
  82. प्रश्न- कविवर घनानन्द के जीवन परिचय का उल्लेख करते हुए उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- घनानन्द की प्रेम व्यंजना पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
  84. प्रश्न- घनानन्द के काव्य वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
  85. प्रश्न- घनानन्द का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  86. प्रश्न- घनानन्द की काव्य रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
  87. प्रश्न- घनानन्द की भाषा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  88. प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
  89. प्रश्न- घनानन्द के अनुसार प्रेम में जड़ और चेतन का ज्ञान किस प्रकार नहीं रहता है?
  90. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (घनानन्द)

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